कला (Art)
प्रागैतिहासिक काल से ही मानव ने अपने आसपास के वातावरण से प्रभावित होकर अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए पत्थरों एवं तूलिका द्वारा रेखा एवं आकृतियों को गुफाओं की भीतियो और चट्टानों पर अंकित
करना प्रारंभ किया, जो कला का प्रारंभिक रूप था जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता गया कला भी नए स्वरूप में सामने आती रही ! नए - नए मापदंड स्थापित होते रहे और कला ने गुफा चित्रों चिन्हों शिल्पकार आदि विभिन्न चरणों से गुजरते हुए आधुनिक स्वरूप धारण किया ! सामान्यतः जब भी कला की बात की जाती है तो इसमें दृश्य कला, संगीत, नाटक, नृत्य एवं लेखन आदि को शामिल किया जाता है कला के प्रत्येक स्वरूप को देखने वाले ज्ञानेंद्रियां द्वारा भी विभिन्न तरीकों से महसूस किया जाता है ! कला के प्रत्येक स्वरूप का विकास एक सामान्य जरूरत को अनुभवों, अनुभूतियों, विचारों एवं अंत दृष्टि से अभिव्यक्तिक अर्थ प्रधान करने से हुआ है जिसमे मुख्यत: तीन धाराओं का विकास हुआ - प्रथम 'शास्त्रीय कला' ( ललित कला ) जो सात्विक आनंद का स्त्रोत थी , दूसरी वह कला जो उपयोगी वस्तुओं में थी अर्थात कला का वह स्वरूप जिसके अधिक संख्या में प्रतिरूप (Reproduction) बनाए जाते थे और यह 'पॉपुलर आर्ट' कहलाई, तीसरी वह कला जो जन सामान्य के साथ की थी, जिसे 'लोक कला' कहा जाता है ! कला एक व्यापक अवधारणा है जिसे परिभाषित करना मुश्किल है, परंतु इसे निम्न तथ्यों द्वारा समझा जा सकता है -
प्राचीन समय में तो कुशलता ही कला मानी जाती थी और कला के लिए 'शिल्प' शब्द का प्रयोग होता था ! सर्वप्रथम प्राचीन ग्रंथ 'ऋग्वेद' मे कला शब्द का प्रयोग हुआ है ! इस समय कलाकार को शिल्पिन कहा जाता था !
कला शब्द का यथार्थवादी प्रयोग प्रथम शताब्दी में भरतमुनि ने अपने 'नाट्य - शास्त्र' में 'शिल्प' और 'कला' दोनों शब्दों के अलग-अलग प्रयोग हेतु किया "न तज्जान न ताछिल्प न साविधा न साकला " अर्थात ऐसा कोई ज्ञान नहीं
जिसमे कोई शिल्प नहीं कोई विद्या नहीं जो कला न हो, लेकिन भरतमुनि ने इनके भेद को स्पष्ट नहीं किया ! संभवत: भरतमुनि ने कला को 'ललित कला' के रूप में माना और कला को ज्ञान, शिल्प एवं विद्या से अलग रखा !
इससे पूर्व सभी कलात्मक कार्य शिल्प के अंतर्गत माने जाते थे ! महर्षि पाणिनि ने अष्टाध्याई में नर्तक, वादक और गायक को शिल्पी कहा है ! महर्षि पाणिनि ने कला को चारु ( Art) व कारू (craft) वर्गों में वर्गीकृत किया है ! भारतीय शास्त्रों ( वात्स्यान के "कामसूत्र एवं शुक्रनीति ) में 64 कलाओं की कल्पना की गई है !
यूरोप में भी कलाओं के लिए शिल्प के समानार्थी शब्दों का प्रयोग उतरता होता था ! यूनान (greece) में कलाओं को 'तेखने' (Texven) कहा जाता था जिसका अर्थ शिल्प ही है ! इसी प्रकार 13वी शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजी के आर्ट (Art) शब्द का विकास भी प्राचीन लेटिन शब्द आर्स (Ars) से ही हुआ है ! जिसका अर्थ भी बनाना, पैदा करना या संयोजित करना ( कौशल या शिल्प ) ही है, जो कला को व्यक्त करता है ! कुछ विद्वान मानते हैं कि वर्तमान में प्रयुक्त किया जाने वाला 'आर्ट' (Art) शब्द पुनर्जागरण काल (Renaissance) के शब्द "Arti" और "Arte" से उत्पन्न हुआ है ! 14वी से 16वी शताब्दी ( पुनर्जागरण काल ) में इस शब्द का प्रयोग दस्तकारी के लिए किया जाता था ! "Arti" शब्द का प्रयोग परंपरागत दस्तकारी से संबंधित कार्यों के लिए किया जाता था "Arte" शब्द का प्रयोग उस दस्तकारी के लिए प्रयुक्त होता था जिसमें चित्रकार द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली ज्ञान सामग्री का ज्ञान उसमें अंतर्निहित हो, जैसे - रंग द्रव्य रसायन की प्रकृति उसका उनका एक दूसरे एवं जिस धरातल पर उनका प्रयोग किया जाना है, से अंतर्संबंध आदि ! यूरोप में 18वी शताब्दी में सौंदर्य शास्त्रीय ने कलात्मक कार्यों को तीन वर्गों में विभाजित किया -
(i) सौंदर्यात्मक लक्ष्य से संबंधी कार्य 'ललित कला'
(ii) नैतिक कार्य 'आचरण कला'
(iii) उपयोगी कार्य 'उदार कला' !
हीगेल ने कला को इंद्रियों के आधार पर दो वर्गों - (i) दृश्य कला और (ii) श्रव्य कला के रूप में वर्गीकृत किया ! विभिन्न विभाजन के पश्चात भी सामान्यत 'कला' (Art) शब्द का प्रयोग ही सामान्य व्यवहार व्यवहार में किया जाता है जिसे हम 'ललित कला' एवं उपयोगी कलाओ के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं ! ललित कला का संबंध मानव की मानसिक आवश्यकताओं ( सौंदर्य बोध ) से है जबकि उपयोगी कलाओं का संबंध मानव की भौतिक आवश्यकताओं से है !
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