लोक कला (Folk Art)
आदिकाल से ही मानव अपने विचारों को अभिव्यक्त करने एवं भावनाओं को सम्प्रेषित करने के लिए कलाकृतियों का सहारा लेता आ रहा है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ ही इन कलारूपों ने विविध रूप धारण कर लिये हैं। लोक कला भी इन्हीं कलारूपों में से एक है जो प्रारम्भिक सभ्यताओं की परम्पराओं का निर्वहन करते हुए लोक जीवन के साथ-साथ निरन्तर रूप से वर्तमान में फल-फूल रही है। मूल रूप में देखा जाये तो कला मुख्यतः दो स्वरूपों (शास्त्रीय और लोककला) में विकसित हुई। शास्त्रीय कला का विकास राज्याश्रित कलाकारों या स्वतंत्र रूप से कला साधना में जुटे कलाकारों द्वारा हुआ। भारतीय शास्त्रीय कला का स्वरूप अजन्ता, ऐलोरा, बाघ, राजपूत, मुगल, पहाड़ी, कम्पनी आदि विभिन्न शैलियों से होता हुआ वर्तमान में दिखाई देता है।
लोक कला का जन्म सांस्कृतिक भावनाओं, रीति-रिवाजों, विश्वासों एवं परम्पराओं आदि पर आधारित मनुष्य के सृजनात्मक प्रयास से विकसित अलंकरणों से हुआ जिसमें इन अलंकरणों से घर-आँगन एवं उसकी दीवारों को सजाया जाने लगा और धीरे-धीरे यह एक सामाजिक एवं धार्मिक अनुष्ठान बन गया और इसने लोक कला का रूप ले लिया। इससे यह प्रतीत होता है कि लोककला का जन्म जनमानस की सृजनात्मक कला प्रवृत्ति के विकास के साथ ही हुआ है और यह कला बिना किस आश्रय, प्रलोभन, प्रोत्साहन के स्वतन्त्र रूप से निरन्तर विकसित होती रही है।
प्रो. सी. एल. झा के अनुसार, "लोक कला मानवीय भावनाओं के साथ-साथ चली आ रही है जो अति प्राचीन है। अर्थात् लोककला मानवीय भावनाओं का सुन्दर प्रदर्शन है जो सांस्कृतिक उन्नति के साथ-साथ विकसित होती चली आ रही है।"
लोक कला, लोक अथवा सामान्य-जन की कला है जो संस्कृति की रीढ़ होती है। इसे ग्रामीण कला एवं कृषक कला के नाम से भी जाना जाता है। इस कला को मुख्यतः ग्रामीण जनता से जोड़ा जाता है। लोककला जनसाधारण की अभिव्यक्ति है। जन-साधारण की सांस्कृतिक अकांक्षायें जब सुलभ उपलब्ध वस्तुओं की सहायता से अपने कलात्मक रूप में अभिव्यक्त होती हैं तो वह लोक कला कहलाती है। लोक कलाएँ मुख्यतः स्थानीय ही होती हैं और इनमें प्रयुक्त की जाने वाली सामग्री भी स्थानीय परम्पराओं के अनुसार होती है। विभिन्न विद्वानों ने लोक कला को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है -
(i) ए. के. हल्धार के अनुसार, "लोक कला जन-सामान्य के ऐसे आलेख हैं जो विभिन्न सांस्कृतिक अवसरों पर प्रयोग में लाये जाते हैं। जैसे - बंगाल में अल्पना, उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, मुम्बई में रंगोली, राजस्थान में मांडणा और दक्षिण भारत में कोयल आदि सभी मानवीय भावनाओं के प्रदर्शन हैं।"
(ii) प्रो. सी. एल. झा ने कहा है कि, "लोक कला हमारी धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभिव्यक्ति की प्रतीक है, जो मानव-हृदय की उपज है और जिसमें कृत्रिमता एवं प्राविधिक प्रयोगों का कोई भी स्थान नहीं है।"
(iii) श्री शेलेन्द्र नाथ सामंत का विचार है कि, "लोक कला सामान्य जन-समुदाय की सामूहिक अनुभूति की अभिव्यक्ति है।"
लोक कला सांस्कृतिक परम्पराओं से जुड़ी कला है जो उन चित्रकारों या दस्तकारों द्वारा तैयार की जाती है जिन्होंने विधिवत् प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है। इसमें चित्र बनाना, मूर्तियाँ बनाना, कढ़ाई-बुनाई, लकड़ी के खिलौने तथा बर्तन आदि मुख्य होते हैं।
उपर्युक्त विचारों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लोक कला में कृत्रिमता का कोई स्थान नहीं है। इस कला में मौलिकता होती है, यह तो हृदय से निकलती है जिसका सृजन समतल सतह (आंगन), दीवारों, कागज या स्थानीय सामग्री से बनी वस्तुओं आदि पर गेरूं, खड़िया रंगों व कोयले आदि से किया जाता है। सामान्यत: ग्रामीण घरों में फर्श या दीवार को गोबर, पेड़-पत्तों के रस आदि से लीप कर उसके ऊपर गेरू, चावल, खड़िया आदि से चित्र बनाये जाते हैं जिसमें सींक में रूई लपेटकर उसे ब्रश की तरह प्रयोग किया जाता है तथा मिट्टी व कागज की लुगदी से बने बर्तनों एवं खिलौनों पर भी इस कला का आलंकारिक रूप दिखाई देता है। आंगन में बनाये जाने वाले अलंकरणों को राजस्थान में माँडणा, महाराष्ट्र में रंगोली, गढ़वाल में आपना, बिहार में अपहन, उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, बंगाल में अल्पना और गुजरात में सातिया के नाम से जाना जाता है जिसका स्वरूप विभिन्न त्योहारों या अवसरों के अनुसार अलग-अलग होता है।
वर्तमान समय में यह कला घर-आँगन तक ही सीमित नहीं रही बल्कि कशीदाकारी, खिलौनों, नक्काशी, वस्त्रों एवं भित्तिचित्रों, पटचित्रों में भी इसका प्रयोग होने लगा है। पटचित्रों में बिहार की मधुबनी पेंटिंग, दक्षिणी भारत की कलमकारी, ओडिशा के पट्टचित्र एवं राजस्थान के फड़ चित्र आदि लोक कला की अभिव्यक्तियाँ हैं लोककला में लोकमानस, लोक जीवन, लोक व्यवहार इतना व्याप्त रहता है कि इस कला की अभिव्यक्ति के आकार परम्परा में बंधे रहते हैं। इसके आकार इतने सहज रूप में उपलब्ध रहते हैं कि उन्हें विवेचित करने की आवश्यकता नहीं होती है। लोककला में परम्परागत विश्वास, आस्थाएँ, त्योहार व अनुष्ठान समाहित होते हैं। ये अनुष्ठान परम्पराओं और धार्मिक मान्यताओं से सम्बद्ध होते हैं जो सामान्य-जनों के लिए सहज और सर्वग्राही होते हैं। लोककला सदा ही एक सामूहिक एवं सामुदायिक अभिव्यक्ति के रूप में मुखर रही है जो कठिन परिश्रम, अनुशासन और परम्पराओं के अनुसार विकसित होती है। यह कला बिना किसी आश्रय एवं शिक्षा के पीढ़ी दर पीढ़ी निरन्तर आगे बढ़ती रही है। इस कला में आकृतियों को सार रूप में बनाया जाता है। परिप्रेक्ष्य का प्रयोग नहीं होता और ना ही संयोजन की कोई विशेष तकनीक होती है। लोक कला की विभिन्न विशेषताएँ होती हैं, यथा -
(i) यह कला नामहीन होती है, इस पर व्यक्ति विशेष का नाम नहीं होता है।
(ii) इसमें ललित कला के समान कोई भावना नहीं होती है, यह उपयोग से सम्बन्धित होती है। इसमें दैनिक उपयोग की वस्तुओं को सुन्दर ढंग से कला रूप प्रदान किया जाता है।
(iii) यह कला सार रूप (Abstraction) लिये होती है, इसके रूपों में प्रतीकों एवं आकृतियों की अधिकता पाई जाती है।
(iv) लोक-कला पारम्परिक होती है, इसलिए यह पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचलित रहती है।
(v) लोक-कला में सार्वभौमिकता होती है, इसके सूक्ष्म रूप प्रायः सारे विश्व की कला में मिलते हैं।
(vi) लोक-कला का सम्बन्ध जीवन के प्रत्येक पहलू से होता है। कशीदाकारी किया हुआ जिसके प्रदर्शन, निर्माण एवं सृजन में विविधता होती है।
प्रो. सी. एल. झा ने लोक कला को उसके स्वरूप के आधार पर चार भागों में वर्गीकृत किया है
(i) धार्मिक भावनाओं पर आधारित लोक-कला (त्योहारों, उत्सवों एवं लोक-कथाओं पर आधारित।)
(ii) मनोरंजक भावनाओं पर आधारित लोक कला (विभिन्न प्रकार के गुड्डे-गुड़िया, कठपुतलियाँ, खिलौने एवं दीवारों को सजाने केn काम आने वाली वस्तुएँ बनाना।) व्यक्तिवादी सांस्कृतिक भावनाओं पर आधारित लोक कला (किसी भी एक जाति के शादी-विवाह, जन्म-मृत्यु आदि के समय परम्पराओं के अनुसार बनाये गये अलंकरण।)
(iv) व्यावसायिक भावनाओं पर आधारित लोक-कला (लाख, लकड़ी, कपड़े, बर्तनों, खिलौनों, मिट्टी की मूर्तियों आदि पर बनायी गयी कला।) लोक-कला के प्रति शहरी क्षेत्र के लोगों की रुचि बढ़ी है जो इसकी समृद्धि का प्रतीक है। लेकिन विभिन्न कला शैलियों के प्रभाव, औद्योगिकीकरण, तकनीकी विकास एवं आधुनिकीकरण ने लोक कला को भी प्रभावित किया है जिससे इसके परम्परागत स्वरूप में बदलाव आया है और यह अपना परम्परागत स्वरूप खो रही है। साथ ही आज के समाज के परिवर्तित रूप, बदलती मान्यताओं एवं प्राथमिकताओं ने भी लोक कला के मूल स्वरूप को नष्ट किया है। परन्तु किसी भी कला का अंत नहीं होता विशेषकर जिसका जीवन के साथ रिश्ता होता है। अत: कालान्तर में लोक कला में विविध रूपों का समावेश होगा व कला की यह जीवन से सीधी जुड़ी धारा अनवरत बहती रहेगी।
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